Hindi Quiz (हिंदी भाषा) for HPAS / HPPSC Allied Services 2018: 22 August
निर्देश (प्र. 1-15):: नीचे दिए गए गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़ें और उस पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दें। दिए गए विकल्पों में से सबसे उपयुक्त का चयन कीजिए।
समाज में संवाद का दर्शन और उससे जुड़ी संस्कृति की जड़ें गहरी पैठी हैं और शायद इसलिए समन्वयवादी स्वभाव इसकी पहचान-सी रही है। न्याय और अनेकांतवाद जैसे और जाने कितने दर्शन इस समाज में देखे जा सकते हैं, जो समाज की अस्मिता को व्यक्ति और जाति के निजी स्वार्थों से ऊपर ले जाने के लिए सक्षम हैं। गौर करने की बात है कि ये दर्शन केवल बौद्धिक स्तर पर नहीं रहते, बल्कि उनके व्यवहारिक स्वरूप के बहुत से उदाहरण भी जन-चेतना में उपलब्ध हैं। ऐसा ही एक उदाहरण है बौद्धों और नैयायिकों के बीच विवाद और संवाद का। हिंदुओं और बौद्धों के बीच गंभीर वैचारिक मतभेद था। मिथिला की सामूहिक चेतना में इस मतभेद की उपस्थिति अब भी बनी हुई है। उनके बीच हुई सार्वजनिक बहस की यादें अब भी कहानियों और मिथकों के रूप में मिथिला के समाज में सुनने को मिलती हैं। ऐसी ही एक कहानी के अनुसार एक नैयायिक गुरु ने अपने शिष्य को बौद्ध होकर उनकी तर्क प्रणाली सीखने का आदेश दिया, ताकि सार्वजनिक बहस में उन्हें मात दी जा सके। लेकिन शिष्य दूसरे पक्ष के विचारों में इतना रम गया कि वापस नहीं आ सकता। आखिरकार उसने गुरु का विश्वास तोड़ने के अपराधबोध से मुक्ति के लिए आत्मदाह कर लिया। मिथिला में यह आम धारणा है कि बौद्धों को पाटलिपुत्रा से मिथिला में प्रवेश नहीं करने दिया गया। बहुत से इतिहासकार हिंदुओं द्वारा बौद्धों के मंदिरों को तोड़ने की बात भी कहते हैं।
इन सबके बावजूद आखिर हिंदुओं और बौद्धों के बीच सामान्य संबंध कैसे बन पाए? मानना पड़ेगा कि संवाद की कोई न कोई प्रक्रिया चली होगी, जिससे उनके बीच अस्मिता की लड़ाई से ऊपर उठ कर मीमांसात्मक बहस हो पाई होगी, जिसका दूरगामीप्रभाव दोनों पर पड़ा होगा। इस संवाद का प्रभाव नैयायिकों पर इतना व्यापक था कि विचारों में कई मौलिक परिवर्तन आए और नव न्याय नामक एक नए दर्शन का सृजन हुआ। बौद्धों पर भी सांख्य, योग आदि का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। इस संवाद के परिणामस्वरूप बौद्धों में चिंतन की कई धाराएं विकसित हुईं।
हमारे दौर के अग्रणी विचारकों में से एक नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपाल का कहना है कि हिन्दू धर्म कोई मजहब नहीं, बल्कि एक संस्कृति है। यह तो माना जाता है कि हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धति है, लेकिन इसे संस्कृति क्यों कहा गया है? प्रत्यक्षतः इसका कारण यह है कि यह सदा विकास और परिवर्तन की स्थिति में रहता है। भारत में अनेक मजहब हैं, लेकिन राजसत्ता का कोई मजहब नहीं। भारत को एक धर्मनिरपेक्ष (सैकुलर) देश माना गया है। ‘सर्वधर्म समभाव’ यानी कि सभी मजहबों के प्रति समान रवैया ही इसका जीवन दर्शन है।
वास्तव में अब स्थिति ऐसी नहीं रह गई। दुनिया का एक भी सैकुलर देश ऐसा नहीं जिसमें मजहब का भारत के बराबर दुरुपयोग हुआ हो। इसी के परिणामस्वरूप देश का विभाजन हुआ था लेकिन भारत ने इस भयावह अनुभव से कोई सबक हासिल नहीं किया। शायद यह किसी नई त्रासदी को आमंत्राण दे रहा है। हिन्दू की जिज्ञासा का मार्ग लगभग 1000 वर्ष तक अवरुद्ध रहा लेकिन इसके बावजूद यह जिज्ञासा मरी नहीं। आखिर इसका क्या कारण था? इसका उत्तर देते हुए श्री अरविन्द कहते हैं: ‘‘क्योंकि हिन्दू धरोहर के अंदर खुद का नवीनीकरण करने की कभी समाप्त न होने वाली शक्ति मौजूद है।’’ हम आज के दौर में भी इस तथ्य का साक्षात् दर्शन कर रहे हैं।
महाऋषियों का अमर संदेश यह है कि मनुष्य की सच्ची प्रगति को नैतिक और आत्मिक मानकों पर आंका जाना चाहिए न कि भौतिक व पदाघ्थक मानकों पर। सफलता की तुलना में बलिदान को कहीं अधिक महत्व दिया गया है और संन्यास को जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि माना गया है। प्राचीन भारत में नागरिकों को ऊंचा या नीचा स्थान समाज में शक्ति या सम्पति के आधार पर नहीं, बल्कि उनके ज्ञान, गुणों और चरित्रा के आधार पर दिया जाता था। इसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक हैं, जिन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के आगे सम्मानपूर्वक नतमस्तक होने को दैनिक मर्यादा का रूप ही दे दिया था।
अशोक के महामंत्राी महान सम्राट का भिक्षुओं के आगे झुकना गलत और अनुचित समझते थे। उनकी इस आशंका का निवारणकरते हुए अशोक ने कहा, ’‘मैं इन भिक्षुओं के आगे नतमस्तक इसलिए होता हूं क्योंकि मैं उनकी विद्वता, बुद्धिमता और उनके त्याग का गहराई से सम्मान करता हूं। आखिर जीवन में व्यक्ति का यह रुतबा या हैसियत उतना अर्थ नहीं रखते, जितना उसके गुण और बुद्धिमता। हो सकता है कि बहुत बदसूरत काया में सबसे तेजस्वी मस्तिष्क और कल्याणकारी हृदय छिपा हो। मानवता के विशाल सागर में आप मुट्ठी भर महान लोगों की महानता की पहचान तभी कर सकते हैं, जब आप स्वयं अज्ञानता से ऊपर उठते हैं।’’
समाज में संवाद का दर्शन और उससे जुड़ी संस्कृति की जड़ें गहरी पैठी हैं और शायद इसलिए समन्वयवादी स्वभाव इसकी पहचान-सी रही है। न्याय और अनेकांतवाद जैसे और जाने कितने दर्शन इस समाज में देखे जा सकते हैं, जो समाज की अस्मिता को व्यक्ति और जाति के निजी स्वार्थों से ऊपर ले जाने के लिए सक्षम हैं। गौर करने की बात है कि ये दर्शन केवल बौद्धिक स्तर पर नहीं रहते, बल्कि उनके व्यवहारिक स्वरूप के बहुत से उदाहरण भी जन-चेतना में उपलब्ध हैं। ऐसा ही एक उदाहरण है बौद्धों और नैयायिकों के बीच विवाद और संवाद का। हिंदुओं और बौद्धों के बीच गंभीर वैचारिक मतभेद था। मिथिला की सामूहिक चेतना में इस मतभेद की उपस्थिति अब भी बनी हुई है। उनके बीच हुई सार्वजनिक बहस की यादें अब भी कहानियों और मिथकों के रूप में मिथिला के समाज में सुनने को मिलती हैं। ऐसी ही एक कहानी के अनुसार एक नैयायिक गुरु ने अपने शिष्य को बौद्ध होकर उनकी तर्क प्रणाली सीखने का आदेश दिया, ताकि सार्वजनिक बहस में उन्हें मात दी जा सके। लेकिन शिष्य दूसरे पक्ष के विचारों में इतना रम गया कि वापस नहीं आ सकता। आखिरकार उसने गुरु का विश्वास तोड़ने के अपराधबोध से मुक्ति के लिए आत्मदाह कर लिया। मिथिला में यह आम धारणा है कि बौद्धों को पाटलिपुत्रा से मिथिला में प्रवेश नहीं करने दिया गया। बहुत से इतिहासकार हिंदुओं द्वारा बौद्धों के मंदिरों को तोड़ने की बात भी कहते हैं।
इन सबके बावजूद आखिर हिंदुओं और बौद्धों के बीच सामान्य संबंध कैसे बन पाए? मानना पड़ेगा कि संवाद की कोई न कोई प्रक्रिया चली होगी, जिससे उनके बीच अस्मिता की लड़ाई से ऊपर उठ कर मीमांसात्मक बहस हो पाई होगी, जिसका दूरगामीप्रभाव दोनों पर पड़ा होगा। इस संवाद का प्रभाव नैयायिकों पर इतना व्यापक था कि विचारों में कई मौलिक परिवर्तन आए और नव न्याय नामक एक नए दर्शन का सृजन हुआ। बौद्धों पर भी सांख्य, योग आदि का व्यापक प्रभाव देखा जा सकता है। इस संवाद के परिणामस्वरूप बौद्धों में चिंतन की कई धाराएं विकसित हुईं।
हमारे दौर के अग्रणी विचारकों में से एक नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नायपाल का कहना है कि हिन्दू धर्म कोई मजहब नहीं, बल्कि एक संस्कृति है। यह तो माना जाता है कि हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धति है, लेकिन इसे संस्कृति क्यों कहा गया है? प्रत्यक्षतः इसका कारण यह है कि यह सदा विकास और परिवर्तन की स्थिति में रहता है। भारत में अनेक मजहब हैं, लेकिन राजसत्ता का कोई मजहब नहीं। भारत को एक धर्मनिरपेक्ष (सैकुलर) देश माना गया है। ‘सर्वधर्म समभाव’ यानी कि सभी मजहबों के प्रति समान रवैया ही इसका जीवन दर्शन है।
वास्तव में अब स्थिति ऐसी नहीं रह गई। दुनिया का एक भी सैकुलर देश ऐसा नहीं जिसमें मजहब का भारत के बराबर दुरुपयोग हुआ हो। इसी के परिणामस्वरूप देश का विभाजन हुआ था लेकिन भारत ने इस भयावह अनुभव से कोई सबक हासिल नहीं किया। शायद यह किसी नई त्रासदी को आमंत्राण दे रहा है। हिन्दू की जिज्ञासा का मार्ग लगभग 1000 वर्ष तक अवरुद्ध रहा लेकिन इसके बावजूद यह जिज्ञासा मरी नहीं। आखिर इसका क्या कारण था? इसका उत्तर देते हुए श्री अरविन्द कहते हैं: ‘‘क्योंकि हिन्दू धरोहर के अंदर खुद का नवीनीकरण करने की कभी समाप्त न होने वाली शक्ति मौजूद है।’’ हम आज के दौर में भी इस तथ्य का साक्षात् दर्शन कर रहे हैं।
महाऋषियों का अमर संदेश यह है कि मनुष्य की सच्ची प्रगति को नैतिक और आत्मिक मानकों पर आंका जाना चाहिए न कि भौतिक व पदाघ्थक मानकों पर। सफलता की तुलना में बलिदान को कहीं अधिक महत्व दिया गया है और संन्यास को जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि माना गया है। प्राचीन भारत में नागरिकों को ऊंचा या नीचा स्थान समाज में शक्ति या सम्पति के आधार पर नहीं, बल्कि उनके ज्ञान, गुणों और चरित्रा के आधार पर दिया जाता था। इसका सबसे उत्कृष्ट उदाहरण सम्राट अशोक हैं, जिन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के आगे सम्मानपूर्वक नतमस्तक होने को दैनिक मर्यादा का रूप ही दे दिया था।
अशोक के महामंत्राी महान सम्राट का भिक्षुओं के आगे झुकना गलत और अनुचित समझते थे। उनकी इस आशंका का निवारणकरते हुए अशोक ने कहा, ’‘मैं इन भिक्षुओं के आगे नतमस्तक इसलिए होता हूं क्योंकि मैं उनकी विद्वता, बुद्धिमता और उनके त्याग का गहराई से सम्मान करता हूं। आखिर जीवन में व्यक्ति का यह रुतबा या हैसियत उतना अर्थ नहीं रखते, जितना उसके गुण और बुद्धिमता। हो सकता है कि बहुत बदसूरत काया में सबसे तेजस्वी मस्तिष्क और कल्याणकारी हृदय छिपा हो। मानवता के विशाल सागर में आप मुट्ठी भर महान लोगों की महानता की पहचान तभी कर सकते हैं, जब आप स्वयं अज्ञानता से ऊपर उठते हैं।’’
1. समाज में समन्वयवादी स्वभाव किसका परिणाम है?
1) समाज की अस्मिता और सुरक्षा
2) बौद्धिक स्तर और जन-चेतना में उपलब्ध दर्शन
3) समाज के दर्शन और उससे जुड़ी संस्कृतियां
4) न्याय और अनेकांतवाद के सिद्धांतों
5) इनमें से कोई नहीं
1) समाज की अस्मिता और सुरक्षा
2) बौद्धिक स्तर और जन-चेतना में उपलब्ध दर्शन
3) समाज के दर्शन और उससे जुड़ी संस्कृतियां
4) न्याय और अनेकांतवाद के सिद्धांतों
5) इनमें से कोई नहीं
2. समाज की अस्मिता को व्यक्ति और जाति के निजी स्वार्थों से ऊपर ले जाने में सक्षम होता है-
1) विद्धान 2) सिद्धांत 3) सन्मार्ग
4) दर्शन 5) इनमें से कोई नहीं
1) विद्धान 2) सिद्धांत 3) सन्मार्ग
4) दर्शन 5) इनमें से कोई नहीं
3. अस्मिता की लड़ाई से ऊपर उठकर मीमांसात्मक बहस के लिए क्या आवश्यक होता है?
1) वैचारिक बहस 2) संवाद की प्रक्रिया 3) सामूहिक चेतना
4) तार्किक प्रक्रिया 5) इनमें से कोई नहीं
1) वैचारिक बहस 2) संवाद की प्रक्रिया 3) सामूहिक चेतना
4) तार्किक प्रक्रिया 5) इनमें से कोई नहीं
4. नव न्याय दर्शन किसके प्रभाव स्वरूप सृजित हुआ?
1) संवाद 2) चिंतन 3) दर्शन
4) हिंदुओं और बौद्धों के बीच सामान्य संबंध से
5) इनमें से कोई नहीं
1) संवाद 2) चिंतन 3) दर्शन
4) हिंदुओं और बौद्धों के बीच सामान्य संबंध से
5) इनमें से कोई नहीं
5. हिंदुओं और बौद्धों के बीच के संबंध बनाने पर किसका दूरगामी प्रभाव पड़ा?
1) मीमांसात्मक बहस 2) अस्मिता की लड़ाई 3) न्यायिक गुरू
4) अपराध बोध मुक्ति 5) बुद्ध की शिक्षा
1) मीमांसात्मक बहस 2) अस्मिता की लड़ाई 3) न्यायिक गुरू
4) अपराध बोध मुक्ति 5) बुद्ध की शिक्षा
6. निम्नलिखित में से ‘संवाद’ का समानार्थी शब्द कौन-सा नहीं है?
1) वार्तालाप 2) सम्भाषण 3) प्रवचन
4) बातचीत 5) इनमें से कोई नहीं
1) वार्तालाप 2) सम्भाषण 3) प्रवचन
4) बातचीत 5) इनमें से कोई नहीं
निर्देश (प्र. 7-10): गद्यांश में प्रयुक्त निम्न शब्दों के विलोम शब्द ज्ञात कीजिए।
7. जिज्ञासा
1) सरोकार 2) उदासीनता 3) दिलचस्पी
4) रुझान 5) इनमें से कोई नहीं
1) सरोकार 2) उदासीनता 3) दिलचस्पी
4) रुझान 5) इनमें से कोई नहीं
8. चेतन
1) चैतन्य 2) सचेतन 3) बोध
4) अचेतन 5) इनमें से कोई नहीं
1) चैतन्य 2) सचेतन 3) बोध
4) अचेतन 5) इनमें से कोई नहीं
9. दूरगामी
1) अधोगामी 2) दूरदर्शी 3) दूरदृष्टि
4) अग्रगामी 5) इनमें से कोई नहीं
1) अधोगामी 2) दूरदर्शी 3) दूरदृष्टि
4) अग्रगामी 5) इनमें से कोई नहीं
10. सृजन
1) निर्माण 2) उत्पत्ति 3) नाश
4) आरंभ 5) इनमें से कोई नहीं
1) निर्माण 2) उत्पत्ति 3) नाश
4) आरंभ 5) इनमें से कोई नहीं
निर्देश (प्र. 11-13) गद्यांश में प्रयुक्त निम्न शब्दों का समानार्थी शब्द ज्ञात कीजिए।
11. मर्यादा
1) सीमा 2) अपमान 3) मिलाप
4) परंपरा 5) इनमें से कोई नहीं
1) सीमा 2) अपमान 3) मिलाप
4) परंपरा 5) इनमें से कोई नहीं
12. अस्मिता
1) इज्जत 2) संस्कार 3) सभ्यता
4) अस्तित्व 5) इनमें से कोई नहीं
1) इज्जत 2) संस्कार 3) सभ्यता
4) अस्तित्व 5) इनमें से कोई नहीं
13. मौलिक
1) पद्धति 2) सिद्धांत 3) बुनियादी
4) मोहक 5) इनमें से कोई नहीं
1) पद्धति 2) सिद्धांत 3) बुनियादी
4) मोहक 5) इनमें से कोई नहीं
14. गद्यांश में प्रयुक्त शब्द ‘मिथक’ का समानार्थी कौन नहीं है?
1) अवास्तविक 2) मनगढ़न्त 3) कल्पित
4) यथार्थ 5) इनमें से कोई नहीं
1) अवास्तविक 2) मनगढ़न्त 3) कल्पित
4) यथार्थ 5) इनमें से कोई नहीं
15. गद्यांश में प्रयुक्त शब्द ‘निवारण’ का विलोम शब्द क्या है?
1) समाप्ति 2) वृद्धि 3) प्रारम्भ
4) निकास 5) इनमें से कोई नहीं
1) समाप्ति 2) वृद्धि 3) प्रारम्भ
4) निकास 5) इनमें से कोई नहीं
Answers:
- 1. 3
- 2. 4
- 3. 2
- 4. 1
- 5. 1
- 6. 3
- 7. 2
- 8. 4
- 9. 1
- 10. 3
- 11. 1
- 12. 1
- 13. 3
- 14. 4
- 15. 2